Fashionclutch: बिंदी बाज़ार फिल्म मे जिन किरदारों को सतरंज की बिसात मे खेला और दिखाया गया है वोह बस एक छोटी सी बिसाते भर है आज के छोटे से मुआल्ले से जुडी हुई, जहाँ हर किदार जल्दी से अमीर होने की दौड़ मे शामिल होता है मामू बन्ने के लिए लालच के जूनून मे वोह ऐसा गिरता है की वोह या तो जिंदगी से हाथ गवा देता है या मामू उसकी उंगलिया कटवा देते है. लकिन यहाँ बात देश की है जहाँ आणा हजारे ने लोकपाल बिल का बिगुल बजाते है.यानी पहली बार मुद्दो से लेकर देश चलाने के तरीकों को लेकर सरकार की बिसात में ही प्यादो के जरीये शह-मात हो रहा है या फिर हर कद को प्यादे में तब्दीलकर उस राजा को छुपाया जा रहा है, जिसकी घेरा-बंदी ना हो जाये।
इस सियासी बिसात ने आर्थिक सुधार की उस लकीर को ही शह दे दी है जिसके आसरे अभी-तक देश को यही पाठ पढ़ाया गया कि उत्पादन से महत्वपूर्ण है सेवा और सेवा का मतलब है जेब भरी हो तो सुविधाओ का भंडार सामने होगा। यानी बाजार व्यवस्था का ऐसा खाका, जिसमें कॉरपोरेट की पहल ही देश में उर्जा लायेगी, वही हवाई क्षेत्र में बदलाव करेगी, उसी की पहल एसआईजेड या माल संसकृति को बिखेरेगी , बंदरगाहो की सूरत भी कारपरेट बदलेगा , घर-गाडी-शिक्षा-स्वास्थय के क्षेत्र में तरक्की भी कारपोरेट लायेगा।
बिंदी बाज़ार का मतलब तिक उसी तरह देखा जा सकता जहाँ हर कोई एक खामोश आकोश की दुनिया मे रहेते हुए ना जाने कब गुनाहों की दुनिया मे चलने वाली सतरंज का बे-ताज चालो का मोहरा बन जाता है और उसको चलाना वाला मामू बन कर कर राज करता है. नव युवक जिस तेजी से गुनाहों और जल्दी पैसे कमानी वाली राहो मे जिस तरह से अपना कदम रखते है वोह इस फिल्म के द्वारा देखा जा सकता है.
केके मनोन जिस किदार की भूमिका मे है वोह एक ऐसे छुपे हुए डोन का चेहरा है जो उस दुनिया मे ना होते हुए भी उस दुनिया का बेताज वजीर बना हुआ है जो वक़्त आने पर अपनी चालो उस तरह मोडता है जैसे की वोह उन्ही मफिओं के बीच मे हो. वोह अपने हर प्यादे से खेलता भी है और उस के नाम से उस की दुनिया के लोग कापते भी है और बात मानते भी है.
बात यहाँ सता की है और उसपर राज करने वाले नेताओ की, जो सता को अपने की अनुरूप चलते है और वक़्त आने मे चलो को मोड़ देते है,
अन्ना हजारे और बिंदी बाज़ार का लोकपाल बिल, अन्ना जिस लोकपाल बिल लाने की बात करते है सरकार उस लोकपाल बिल से मुकलिफ्त नहीं रखती, अन्ना की टीम कहेती है की सरकार जनता को गुमराह कर रही है, और कपिल सिबल सीधा सिविल सोसाइटी के उपर सवाल उठाते है. बीजेपी तमाशा देखती है और अपनी पार्टी लाइन की मनसा भी साफ़ नहीं करती, बीजेपी यह भी कह देती है की संसद मे करेंगे बात लोकपाल के उपर. वहीं लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री पद को लाने पर सहमति देने वाले मनमोहन सिंह के उलट उनके अपने कैबिनेट मंत्री कपिल सिब्बल का यह कहना कि जब मनमोहन सिंह पीएम नहीं रहेगे तो फिर दूसरी पार्टियो की सोच क्या है, उसपर सहमति भी जरुरी है।
अन्ना ने एलन कर दिया था की अगर लोकपाल बिल नहीं आया तो 16 अगस्त से आन्शन मे जायेगे , दिल्ली पोलिसे और सरकार ने भी साफ़ कर दिया दिल्ली मे 144 धारा लगा कर की 4 लोगो की भीड़ का जमावड़ा भी उन्हें पसंद नहीं , जिस का साफ़ मतलब है की किसी भी जगह मे सरकार आन्शन करने की इज़ाज़त नहीं देती. सरकार की दिकत यही से देखी जा सकती है. की वोह प्रधानमंत्री को लोकपाल बिल के अंदर नहीं लाना चाहती है, और आण जो लोकपाल बिल लाना चाहते है वोह उन सब सरकारी बाबु से लेकर ग्राम पंचायत से लेकर देश के सबसे पॉवरफुल इंसान को लाना चाहता है. डॉ मनमोहन सिंह पहेले ही साफ़ कर चुके है की उन्होंने लोकपाल के दायरे मे आने से कोई आपति नहीं है. मगर ऐसा पिछले सात सालो मे पहेली बार हुआ है जब प्रधानमंत्री की बात उन्ही की कैबिनेट ने नज़र अंदाज़ कर दी,
इस सियासी बिसात ने आर्थिक सुधार की उस लकीर को ही शह दे दी है जिसके आसरे अभी-तक देश को यही पाठ पढ़ाया गया कि उत्पादन से महत्वपूर्ण है सेवा और सेवा का मतलब है जेब भरी हो तो सुविधाओ का भंडार सामने होगा। यानी बाजार व्यवस्था का ऐसा खाका, जिसमें कॉरपोरेट की पहल ही देश में उर्जा लायेगी, वही हवाई क्षेत्र में बदलाव करेगी, उसी की पहल एसआईजेड या माल संसकृति को बिखेरेगी , बंदरगाहो की सूरत भी कारपरेट बदलेगा , घर-गाडी-शिक्षा-स्वास्थय के क्षेत्र में तरक्की भी कारपोरेट लायेगा।
बिंदी बाज़ार का मतलब तिक उसी तरह देखा जा सकता जहाँ हर कोई एक खामोश आकोश की दुनिया मे रहेते हुए ना जाने कब गुनाहों की दुनिया मे चलने वाली सतरंज का बे-ताज चालो का मोहरा बन जाता है और उसको चलाना वाला मामू बन कर कर राज करता है. नव युवक जिस तेजी से गुनाहों और जल्दी पैसे कमानी वाली राहो मे जिस तरह से अपना कदम रखते है वोह इस फिल्म के द्वारा देखा जा सकता है.
केके मनोन जिस किदार की भूमिका मे है वोह एक ऐसे छुपे हुए डोन का चेहरा है जो उस दुनिया मे ना होते हुए भी उस दुनिया का बेताज वजीर बना हुआ है जो वक़्त आने पर अपनी चालो उस तरह मोडता है जैसे की वोह उन्ही मफिओं के बीच मे हो. वोह अपने हर प्यादे से खेलता भी है और उस के नाम से उस की दुनिया के लोग कापते भी है और बात मानते भी है.
बात यहाँ सता की है और उसपर राज करने वाले नेताओ की, जो सता को अपने की अनुरूप चलते है और वक़्त आने मे चलो को मोड़ देते है,
अन्ना हजारे और बिंदी बाज़ार का लोकपाल बिल, अन्ना जिस लोकपाल बिल लाने की बात करते है सरकार उस लोकपाल बिल से मुकलिफ्त नहीं रखती, अन्ना की टीम कहेती है की सरकार जनता को गुमराह कर रही है, और कपिल सिबल सीधा सिविल सोसाइटी के उपर सवाल उठाते है. बीजेपी तमाशा देखती है और अपनी पार्टी लाइन की मनसा भी साफ़ नहीं करती, बीजेपी यह भी कह देती है की संसद मे करेंगे बात लोकपाल के उपर. वहीं लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री पद को लाने पर सहमति देने वाले मनमोहन सिंह के उलट उनके अपने कैबिनेट मंत्री कपिल सिब्बल का यह कहना कि जब मनमोहन सिंह पीएम नहीं रहेगे तो फिर दूसरी पार्टियो की सोच क्या है, उसपर सहमति भी जरुरी है।
अन्ना ने एलन कर दिया था की अगर लोकपाल बिल नहीं आया तो 16 अगस्त से आन्शन मे जायेगे , दिल्ली पोलिसे और सरकार ने भी साफ़ कर दिया दिल्ली मे 144 धारा लगा कर की 4 लोगो की भीड़ का जमावड़ा भी उन्हें पसंद नहीं , जिस का साफ़ मतलब है की किसी भी जगह मे सरकार आन्शन करने की इज़ाज़त नहीं देती. सरकार की दिकत यही से देखी जा सकती है. की वोह प्रधानमंत्री को लोकपाल बिल के अंदर नहीं लाना चाहती है, और आण जो लोकपाल बिल लाना चाहते है वोह उन सब सरकारी बाबु से लेकर ग्राम पंचायत से लेकर देश के सबसे पॉवरफुल इंसान को लाना चाहता है. डॉ मनमोहन सिंह पहेले ही साफ़ कर चुके है की उन्होंने लोकपाल के दायरे मे आने से कोई आपति नहीं है. मगर ऐसा पिछले सात सालो मे पहेली बार हुआ है जब प्रधानमंत्री की बात उन्ही की कैबिनेट ने नज़र अंदाज़ कर दी,
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