Sunday, January 4, 2015

Ranveer-Deepika to celebrate Deepika’s birthday in New York

Rohit Dhyani:

Deepika Padukone has established a successful career in Bollywood films, and is cited in the media as one of the most popular and attractive Indian celebrities.

Padukone, the daughter of the badminton player Prakash Padukone, was born in Copenhagen and raised in Bangalore. As a teenager she played badminton in national level championships, but left her career in sport to become a fashion model. She soon received offers for film roles, and made her acting debut in 2006 as the titular character of the Kannada film Aishwarya. Padukone then played dual roles in her first Bollywood release—the 2007 blockbuster Om Shanti Om and won a Film fare Award for Best Female Debut.

Deepika Padukone is not only tasting success, but also literally basking in its glory and rightly so! On her 28th birthday, we take a look at some of her defining moments in Bollywood. The actress has been on a roll in the past few years, with almost each and every release making its way to the much-coveted Rs 100 crore club. On her 29th birthday, we take a look at some of her defining moments in Bollywood.

Deepika Padukone first made her way into this glitzy town with Farah Khan's 'Om Shanti Om' opposite none other than Bollywood Badshah Shah Rukh Khan. Not only did Deepika’s performance make fans and critics stand up and take notice of this new face, but the film was a huge commercial success. Later Deepika reunited with 'Om Shanti Om' co-star Shah Rukh Khan for yet another blockbuster, Rohit Shetty’s ‘Chennai Express’. She played Meenalochini Azhagusundaram and absolutely nailed the typical Tamil accent. 'Chennai Express' went on to be the second-highest grossing Bollywood film worldwide.

Bachna Ae Haseeno: Deepika shared screen space with Ranbir Kapoor in Siddharth Anand’s romantic comedy. Set in Australia, Deepika was seen as the gutsy student who is also a cab driver in the city. Though the film opened to mixed opinions, it was declared a hit and performed well at the box office. It was Homi Adajania's 'Cocktail' that proved to be a turning point in her career. Her portrayal of the bold and beautiful Veronica, earned Deepika immense praise and several award nominations. The dimpled beauty showed us that she could be more than just Ms. Goody-Two-Shoes. ‘Cocktail’ was declared a Box office hit, both in India and abroad.

Deepika’s pairing with Saif Ali Khan in Imtiaz Ali’s ‘Love Aaj Kal’ was a big hit. She played Meera Pandit, a headstrong career woman in the love story, that revolved around the changing value of relationships among youngsters. The film went on to become the third-highest grossing film of the year. In 2013, Deepika Padukone appeared in multi-starrer ‘Race 2’ alongside Saif Ali Khan, John Abraham, Anil Kapoor, Ameesha Patel and Jacqueline Fernandez. Though the critics weren’t very kind to it, the Bollwyood thriller was the first film to enter the Rs 100 crore club that year.

Deepika scorched screens with her performance of Leela in Sanjay Bhansali’s ‘Goliyon Ki Raasleela Ram-Leela’ opposite rumoured lover, Ranveer Singh. The duo enthralled and seduced their audience in the Indian adaptation of Shakespearean play ‘Romeo and Juliet’. ‘Ram-Leela’ was declared a massive commercial hit and is one of the highest-grossing Bollywood films of 2013.


Deepika Padukone once again joined forces with Shah Rukh Khan for a third time in Farah Khan’s multi-starrer 'Happy New Year'. Deepika Padukone once again joined forces with Shah Rukh Khan for a third time in Farah Khan’s multi-starrer 'Happy New Year'. Alongside her acting career, Padukone participates in stage shows, has written columns for an Indian newspaper, and is a prominent celebrity endorser for brands and products. Her off-screen life is the subject of fervent tabloid reporting in India.

Saturday, January 3, 2015

क्या भूमि अधिग्रहण अधिनियम बिल को लेकर केंद्र सरकार भी सीपीएम की राह पर चल निकली हैं।

Rohit Dhyani: प्रकाश झा हमेशा से लीक से हटकर फिल्म बनाने वाले निर्माता रहे है, आरक्षण, गंगाजल, लोकनायक, अपहरण, राजनीति, यह साली ज़िन्दगी, सत्याग्रह यह कुछ फिल्म भर है जो प्रकाश झा ने बनायीं हैं और एक आम आदमी से जुड़ा अलग तरह का सिनेमा सिनेमा हॉल मे दिखया जो एक निर्माता के लिए काफी जोखिम भरा होता है । जिस तरह की झा साहेब फिल्म बनाते रहे उस तरह का जोखिम बहुत से फिल्म निर्माता नहीं लेते। चक्रव्यूह कुछ साल पहले सिनेमा हॉल मे आई थी, चक्रव्यूह का ज़िक्र इसलिए भी किया जाना अनिवार्य हो जाता है, क्युंकि चक्रव्यूह फिल्म की पटरेखा भी उसी धरती मे रची गयी थी जो आज केंद्र सरकार की भूमि अधिग्रहण अधिनियम बिल सशोधन मे है। चक्रव्यूह फिल्म भी गरीब आदिवासी या नक्सल के ईद-ग्रिद घूमती हुई नज़र आती है. अपनी जमीन को बचाने के लिए "लाल सलाम, लाल सलाम" का नारा लगते हुए सरकारों से लड़ते हुए जो नक्सल चक्रव्यूह मे दिखाई देते है वही हाल सिंदूर, लालगढ़ और नंदीग्राम, बस्तर, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, बंगाल और उड़ीसा मे जमीनी हक़ीक़त मे दिखाई पड़ता है. सरकारे अभी तक नक्सल ग्रुप से बातचीत मे असफल ही रही है, सब मुनाफा देखने लगे है चाहे वो सरकारे, नक्सल, या पार्टिया ही क्यू ना हो.

आज से चार दशक पहले नक्सलवाद या माओवाद की पीठ पर सवार होकर सीपीएम (लेफ्ट पार्टी ) ने सत्ता से कांग्रेस को बेदखल कर किया था और चार दशक तक राज्य मे राज भी किया था मगर चार दशक बाद माओवादियों की पीठ की आड़ पर सवार होकर ममता बनर्जी ने सीपीएम को बंगाल की सत्ता से बेदखल कर दिया किया था। जिस नंदीग्राम और सिंदूर की आड़ लेकर ममता ने अपनी राजनीती को एक नयी दिशा दी और लेफ्ट को भी बंगाल से बाहार का रास्ता दिखा दिया और केंद्र की सत्ता मे भी अपना बिगुल बजा दिया था क्या वही ममता दीदी अब नरेंद्र मोदी से भूमि अधिग्रहण अधिनियम बिल संशोधन पर दो दो हाथ करने के मूड मे आ गयी है. लेफ्ट पार्टी या कामरेड अब बिल्कुल बिखरने की स्थिति मे खड़े है, इसके लिए लेफ्ट पार्टी के शीर्ष लीडरशिप भी उतनी ही जिम्मेदार जितना की लेफ्ट पार्टी का ३४ वर्षों का राज्य बंगाल मे रहा.

आज माओवादी सीधा केंद्र सरकार से आँखों से आँख मिलाने की स्थिति मे खड़े है, माओवादी किशन जी के मारे जाने के बाद एक बार नया सवाल यही उभरा था कि आने वाले वक्त में क्या माओवादियों के निशाने पर केंद्र की सत्ता होगी। कभी एक वक़्त ऐसा भी था जब नक्सलबाड़ी में किसानों ने जमींदारों को लेकर हथियार उठाये थे और आज भूमि अधिग्रहण अधिनियम के खिलाफ ममता दीदी फिर से आक्रोश लेकर केंद्र सरकार के सामने आ गयी है। लालगढ़ में भी किसान-आदिवासियों ने हथियार उठाये हुए है फिर आंध्रप्रदेश से आये माओवादियो की लड़ाई अब बस्तर से लड़ी जा रही है।

लालगढ़ पश्चिमी मिदनापुर का हिस्सा है और एक वक्त मिदनापुर के करीब साढ़े सोलह हजार गांवों में आदिवासी ग्रामीण सीपीएम सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ने को तैयार थे। संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाने वाला देश आज भी आज़ादी के ६ दशक के बाद भी भारत देश की राजनीती दो राहे पर खड़ा है…जहाँ एक तरफ पूंजीवाद की बाते होती है और एक तरफ ग्रामीण भारत को गोद लेने की गुफ्त्गू आम हो चली है…नयी निर्वाचित भारत सरकार को ही अब तय करना होगा की भारत को किस दिशा मे ले जाना सही रहेगा, सबका विकास सब का साथ का नारा को करने के लिए मोदी सरकार के पास साढ़े चार साल से भी काम वक़्त बचा है. भारत के ग्रामीणो की हालत ऐसी है जहां इनके पास गंवाने के लिये कुछ भी नही है। इन गांवो में खाना या पीने का पानी तक सरकार मुहैया नहीं करा पायी है। सरकारी योजनाओ के तहत मुफ्त अन्न हो या कुएं का पानी इसके लिये गांववालों को खुद पर ही निर्भर रहना पड़ता है। गांव की बदहाली और नेताओ की खुशहाली देखकर यही लगता है कि इलाके में यह नये दौर के जमींदार आ गए है। जिनके पास सबकुछ है। गाड़ी,हथियार,धन-धान्य सबकुछ ।जबकि भारत के कुछ गांव ऐसे भी है जहाँ के जमींदारो ने गांवों के कुओं में केरोसिन तेल डाल दिया जिससे गांववाले पानी ना पी सके। यह सब कोई आज का किस्सा नहीं है। सालो-साल से यह चला आ रहा है। किसी गांववाले के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है। गांव मे आज भी आदिवासी रहते है। अभी भी पैसे से ज्यादा सामानों की अदला-बदली से काम चलाया जाता है। इसलिये सवाल माओवादियो का नहीं है। गांवों के भीतर इतना आक्रोश भरा हुआ है कि यह पुलिस-सेना की गोली खाने को भी तैयार हैं। और गांव वालों का यह आक्रोश सिर्फ लालगढ या बस्तर तक सीमित नही है।

ममता बनर्जी क्या देख रही है या क्या सोच रही है,यह तो वो खुद ही जान रही होगी। लेकिन ममता ने नंदीग्राम के आंदोलन में जो सवाल उठाये उस पर नस्लवादी की भी सहमति जरुर थी । लेकिन लालगढ आंदोलन सिर्फ ममता को राजनीतिक लाभ पहुंचाने के लिये हो रहा था, ऐसा सोचना सही नहीं होगा। ममता को लेकर नक्सली यह आशा जरुर करते होंगे कि वह ग्रामीण आदिवासियो की मुश्किलों को समझते हुये अपने ओहदे से सरकार को प्रभावित करेगी। लेकिन संघर्ष का जो रास्ता यहा के आदिवासियों ने पकड़ा है उसे राजनीतिक तौर पर हम राजनीतिक विकल्प के तौर पर देख रहे हैं क्योकि नक्सली की स्थितियां इतनी विकट हो चली हैं कि बस्तर और लालगढ मे नक्सली आंदोलन को पूरे राज्य में बेहद आशा के साथ देखा जा रहा है। वामपंथी विचारधारा को मानने वाला आम शहरी व्यक्ति इसमें नक्सलबाडी का दौर देख भी देखा है। जिसमे कुछ किसान ने जमींदारो के हाथो से नियंत्रण तक छीन लिया था.

जिन हालातो में संयुक्त और तीसरा मोर्चा बना और जनता ने इंदिरा गांधी की कांग्रेस को खारिज कर संयुक्त मोर्चा को सत्ता सौपी। साठ साल बाद ना सिर्फ उसी जनता के सपने टूटे हैं बल्कि संसद की लीडरशिप भी भटक चुकी है। क्योंकि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के आसरे संसद साठ साल से सत्ता में काबिज है और जमीन पर खडा किसान लहुलूहान हो रहा है तो उसका आक्रेश कहां निकलेगा। क्योंकि इन साठ सालों में भूमिहीन खेत मजदूरों की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है । राज्य में 91 लाख 51 हजार भूमिहीन किसान है । इस दौर में चार लाख एकड़ जमीन भूमिहीनों में बांटने के लिये अधिग्रहित भी की गयी। लेकिन अधिग्रहित जमीन का 75 फीसदी कौन डकार गया इसका लेखा-जोखा आजतक सरकारों ने जनता के सामने नहीं रखा। छोटी जोत के कारण 90 फीसदी पट्टेदार और 83 फीसदी बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहों पर जाने के लिये मजबूर हुये। इसमें आधे पट्टेदार और बटाईदारों की हालत नरेगा के तहत काम मिलने वालो से भी बदतर हालत है। इन्हें रोजाना के तीस रुपये तक नहीं मिल पाते। लेकिन नया सवाल कहीं ज्यादा गहरा है क्योंकि एक तरफ राज्य में 11 लाख 75 हजार ऐसी वन भूमि है, जिसपर खेती हो नहीं सकती । और कंगाल होकर बंद हो चुके उगोगो की 40 हजार एकड जमीन फालतू पड़ी है। वहीं किसानी ही जब एकमात्र रोजगार और जीने का आधार है तो इनका निवाल छीनकर सरकार खेती योग्य जमीन में ही अपने आर्थिक विकास को क्यों देख रही है। यही हालात तो नक्सलबाडी के दौर में भी थे।

आपको यह समझना होगा कि सरकारों का यह दोहरा खेल है। क्या प्रतिबंध लगाकर बारह हजार गांववालों को जेल में बंद किया जा सकता है। लेकिन चुनाव के वक्त चुनावी सौदेबाजी में यह गांववाले सरकारों को भी वोट दे देते है क्योकि नक्सल चुनाव लड़ते नहीं हैं या वो डेमोक्रेसी मे विश्वास नहीं रखना चाह राहे है क्युकी सरकार गांव से कोसो दूर ही रहती है, सोचना ये भी होगा की अगर देश दिल्ली से ही चलेगा तो गांव तक कैसे विस्तार हो पायेगा। आजकल यह भी देखा जाना आम हो गया की आंदोलन के वक्त ही पुलिस अत्याचार होता है। नंदीग्राम में भी हुआ था और लालगढ में भी हुआ था । महिलाओ के साथ बलात्कार की कई घटनाये सामने आयी हैं। क्योकि पलायन तो गांव से हो रहा है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इसकी वजह हमारा नक्सल का दबाब नही है बल्कि विकास किस तर्ज पर हो रहा है यह देखना होगा, आज गांव के गांव खाली हो चुके, घरो मे ताले जड़ गए है, जहाँ २ वक़्त की रोटी नसीब न हो तो भला कौन वहां रहेगा, पलायन को रोकना सरकारों की प्राथमिकता होनी ही आवश्यकता है। हालत बद से बतर हो चुके है,


अब सवाल यही है कि जिन बातो को हर सरकार ने चुनाव से पहले पार्टी के घोषणा पत्र मे डाला है उसमे से कितने वादे पुरे किये है. आजतक वही पूरे नहीं हो पाये.आज़ादी के इतने सालो मे भी अगर आज तक गांवों दिल्ली के राजनीती गलियारों से दूर है तो इसकेलिए सरकार जिम्मेदार है न की नक्सलवाद. सरकारों को अब गांवों की तरफ भी देखना होगा और अपने ६० सालो के पार्टी के घोषणा पत्र को भी खंगालना होगा.अब समय आ गया है की देश की जनता को समज़ना होगा की असल में भारत की राजनीति समीकरण कौन चला रहा है, क्या हम पूंजीवाद की तरफ मुड़ राहे है या विकास की और जहाँ सबका साथ हो सब का विकास हो.कुछ पूंजीवाद के जरिये भारत के गरीबों की ज़मीनों पर कब्ज़े के लिए भारत की सत्ता पर कब्ज़ा करना उतना ही ज़रूरी है जितना हर पत्रकार के लिए रोज़ स्टोरी ढूंढ लाना. गरीब आदिवासी के विरोध को दबाने के लिए देश में उन अर्ध सैनिकों को खड़ा कर दिया जाता है जो खुद भी ऐसे ही प्रदेश से आये होते है मगर वो देश के सैनिक उनको जान हटेली मे लेकर लड़ना पड़ता है अपने ही देश के आदिवाशियो के खिलाफ भी. चुनावो से पहले नक्सलवादियों का हव्वा खड़ा करना आम हो गया ताकि वोट भी मिल जाएँ.

ताकि आदिवासी नक्सल के साथ होकर या डरकर वोट देने चुनाव मे न जाये, और जो शहर के नागरिक है उनके वोट सरकार को मिल जाएँ. यहाँ ये समजना होगा की जिस दिन इस देश का आदिवासी चुनाव मे वोट देने चला गया या आदिवासी गांवों के गाँव ने चुनाव मे हिस्सा ले लिया तो किस की सरकार बनेगी. मगर नक्सल हमेसा से चुनाव का बहिष्कार करते आये है जो सारासर गलत है इस लोकतंत्र के लिए जिस पर वो अपना विश्वास खो चुके है. नक्सल को भी आज समय की जरुरत के हिसाब से बदलना होगा और लोकतंत्र का हिस्सा बन कर, सरकारों के साथ मिलकर आदिवासी गांवों को विकास से जोड़ना होगा.

Tuesday, July 23, 2013

#Sensex

Rohit Dhyani:The Sensex ended 143 points higher at 20,302, while the Nifty advanced 46 points to 6,078.

Sanjay Dutt's curative petition dismissed

Rohit Dhyani: Supreme Court has dismissed actor Sanjay Dutt's curative petition seeking review of his conviction in the 1993 Bombay blasts case.

Friday, July 12, 2013

Industrial production contracts 1.6 per cent in May

Rohit Dhyani: India's industrial production unexpectedly contracted 1.6 per cent in May from a year earlier, government data showed on Friday. Analysts had expected output to grow 1.6 per cent annually. April's output growth was revised down to an annual 1.9 per cent from 2.3 per cent earlier.